नगर निगम का रावण तो सब ने मिल जुलकर मार दिया… लेकिन चुनाव मैदान की टिकट तो सबको नहीं, किसी एक को ही मिलनी है…!
(शशि कोन्हेर) : बिलासपुर – बिलासपुर की बदनामशुदा भूमिगत नाली योजना की तरह यहां का रावण भी इस बार प्रदेश में सर्वाधिक चर्चा बटोर गया। रावण को मारने का ऐसा जुनून तो त्रेता युग (रावण की अपनी जिंदगी) में भी देखने को नहीं मिला होगा। उस वक्त रावण को मारने के लिए कोई कंपटीशन नहीं था। लेकिन अब दोस्ताना हो चुके रावण से कोई डर भय नहीं रह गया है। बिलासपुर में इस साल रावण को मारने के लिए जो मारामारी मची थी। जनता, उसका खूब आनंद लेती रही। पहली बार रावण को लेकर खबरें भी उड़ी कि नगर निगम इस बार, पुलिस मैदान में दशहरा उत्सव और रावण दहन का आयोजन नहीं करेगा। महापौर श्री रामशरण यादव ने इसे अफवाह.. बेसिरपैर की बात का बताया.. और कुंभकर्णी निद्रा में सो रहा नगर निगम का पूरा अमला अचानक पुलिस मैदान में जा धमका। खैर आननफानन रावण बना और हमेशा की तरह ऊंचा पूरा, मोटा ताजा बना। फिर सवाल यह उठा कि इस रावण को मारेगा कौन..? घोर शूरवीर दशानन अगर जीवित होते तो शायद उनको मारने के लिए इतनी मारामारी ना मचती। तब बहुत से लोग पतली गली से निकल लिए होते। लेकिन पुलिस मैदान में नगर निगम के द्वारा बनाए गए रावण में सब था…पैरा था। लकड़ी के खोखे थे। टट्टे थे। बड़े पटाखे पटाखे थे। नहीं थी तो बस जान…और इसीलिए उसे मारने, शहर के एक से एक सुरमा ताल ठोंकते दिखे। बात प्रदेश के मुखिया तक गई। और वहीं से शायद यह संदेश आ गया कि आजकल सभी पार्टियों में सामूहिक नेतृत्व का जमाना है। इसलिए बिलासपुर का रावण भी सामूहिक नेतृत्व में ही मारा जाए। और फिर दशहरे के दिन हम सब ने देखा कि पर्यटन मंडल के अध्यक्ष श्री अटल श्रीवास्तव अपने हाथों में धनुष बाण लेकर तैनात खड़े थे। तो बाकी सब लोग उनके कंधे पर हाथ रखकर एक दूसरे का स्पर्श करते हुए खड़े थे। जैसे घरों में होम हवन के समय होता है। होम करने वाले के हाथ और भुजाओं, कंधों को घर के सभी लोग स्पर्श किए रहते हैं। ठीक वैसे ही नगर निगम के बहुचर्चित रावण का दहन हुआ।
मिलजुलकर रावण के दहन का एक फौरी लाभ तो यह है कि अब रावण को मारने का इल्जाम किसी एक पर नहीं लग सकता। बिलासपुर की तासीर हो गई है कि यहां कोई भी कार्यक्रम हो,, उसमें राजनीति आ ही जाती है। बीते कुछ सालों से बिलासा की नगरी में दिल्ली से भी अधिक राजनीति हो रही है। चाहे वह भाजपा हो या कांग्रेस.. यहां कोई नेता किसी को बड़ा और खुद को छोटा मानने को तैयार नहीं है। लिहाजा जनता को गाहे-बगाहे इनके बीच,रस्सी खींच का आनंददायक नजारा देखने को मिलता रहा है।
बहरहाल सत्तारूढ़ कांग्रेस के समझदार नेताओं ने बड़ी समझदारी से पुलिस मैदान के रावण का मामला तो सामुहिक नेतृत्व के जरिए सल्टा लिया। लेकिन अब प्रदेश विधानसभा के नजदीक आ चुके चुनाव में इस फार्मूले की दाल नहीं गलनी है। चुनाव को सिर्फ 1 साल बचा है। ऐसे में रावण दहन की तरह दिनो-दिन नेताओं की खींचतान और अधिक गंभीर होती जाएगी। मुश्किल यह है कि चुनावी टिकट का निपटारा रावण दहन की तरह नहीं हो सकता।
बिलासपुर, बेलतरा बिल्हा,तखतपुर, कोटा और मस्तूरी से किसी एक को ही टिकट मिल सकती है। और यह “एक” कौन होगा..? इसे लेकर ही आने वाले दिनों में कांग्रेस और भाजपा दोनों में जबरदस्त जंग देखने को मिलेगी। अभी तक एक दूसरे के गले में हाथ डालकर घूम रहे नेता, चुनावी माहौल के भड़कते ही एक दूसरे का गला दबाने को तैयार दिखेंगे। अकेले बेलतरा विधानसभा सीट के लिए किलो के भाव से दावेदार दिख रहे है। कमोबेश यही हाल बिल्हा,कोटा और तखतपुर का भी रह सकता है। बिलासपुर में भी नए घुड़सवारों की किस्मत का पिटारा खोलने का दांव पेंच शुरू हो चुका है ।
कांग्रेस हो या भाजपा.. पार्टी के नेताओं के लिए तब मुश्किल यह होगी कि रावण दहन के लिए तो उन्होंने, सामूहिक नेतृत्व का फार्मूला निकालकर सियासी बवंडर को शुरू होने के पहले ही ठंडा कर दिया। लेकिन यह तरकीब चुनावी टिकट के मामले में कारगर साबित नहीं हो सकती। लिहाजा जहां आगामी चुनाव में टिकट के दावेदार अभी से दूसरों की तुलना में अपनी लकीर बड़ी करने या दूसरों की काटने में लगे हुए हैं। वहीं दोनों ही पार्टियों के बड़े नेताओं को भी किसी ऐसे चमत्कारिक फार्मूले की तलाश करनी होगी, जिससे टिकट वितरण के मामले में सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।