गांवों में शुरू हो गई विधानसभा चुनावों की माउथ पब्लिसिटी..ऐ दारी कका फेर आही के नहीं.. कांग्रेस या भाजपा..? काखर किस्मत “महमहावत” हे..?
(शशि कोन्हेर) : बिलासपुर। हमारे देश और प्रदेश में टीवी और व समाचार पत्रों के विज्ञापनों का ओवरफ्लो शायद ही वह काम कर पाता है। जो काम ठीक चुनाव के समय पब्लिक की माउथ पब्लिसिटी किया करती है। आप समझ ही गए होंगे माउथ पब्लिसिटी मतलब है है कानो-कान…!। एक आदमी दूसरे से जो कहता है और दूसरा फिर तीसरे से जो कहता है। इस पब्लिसिटी की गति इतनी तेज होती है कि बड़े से बड़े अखबारों और टीवी चैनल्स के समाचार और विचार 24 घंटे में जितनी दूर तक जा पाते होंगे.। उससे कई दूर तक माउथ पब्लिसिटी आगे निकल जाती है। अब इसका “गणेश जी दूध पी रहे हैं” जैसा एक उदाहरण भी देख लीजिए। अखबारों में, चैनल्स में, वामपंथी बुद्धिजीवियों की बैठकों से लगातार प्रसारित हो रहा था कि ऐसा नहीं हो रहा है। गणेश जी कहीं भी दूध नहीं पी रहे हैं। लेकिन उनकी बात अनसुनी कर कटोरे में दूध लेकर गणेश मंदिरों में पहुंचने वालों की भीड़ बढ़ती ही चली जा रही थी। मतलब साफ है कि आप चाहे जितना चीख चिल्ला लो… जनता वही करेगी, जो उसे करना होता है।
हालांकि छत्तीसगढ़ के चुनाव को लेकर अभी प्री पोल सर्वे जैसी बातें इतनी तेज नहीं चल रही है जितनी तेज पूरे देश में लोकसभा के चुनावों को लेकर चल रहे हैं। लोकसभा चुनाव को लेकर नेताओं की सक्रियता, बयान बाजी और मीडिया में चल रहे सर्वे को देखने से ऐसा भ्रम होने लगता है। मानो पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के पहले ही लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि देश की बात छोड़िए हमारे छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में रहने वाले आम मतदाताओं को अभी लोकसभा चुनाव का संक्रमण स्पर्श तक नहीं कर पाया है। छत्तीसगढ़ के गांव में धीरे-धीरे आने वाले विधानसभा चुनावों की सुगबुगाहट के पलीते लग रहे हैं। कुछ दिन और… इसके बाद यहां लोकसभा चुनाव की चर्चा ठीक वैसे ही गायब हो जाएगी जैसा कुछ साल पहले पंचायत चुनाव सर पर आते ही लईका पकड़ैया”की अफवाह गायब हो गई थी।
हालांकि छत्तीसगढ़ में भी मोहरे बिछ गए हैं। बात रहे हैं । दोनों ही पार्टियों ने अपने संगठन के रथियो और महारथियों के नाम तकरीबन डिक्लेअर कर दिए हैं। अभी इस दौर में गांव की ओर जाने से एक बात साफ दिखाई दे रही है कि इस बार के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों की बजाय मौजूदा विधायकों और उन्हें टक्कर देने वाले प्रत्याशियों के कर्म, कुकर्म और सत्कर्म पर ही हार जीत का फैसला अधिक निर्भर होता दिखाई दे रहा है। शहरी क्षेत्रों को यदि हम छोड़ भी दें तो गांव में भी मतदाता (धीरे-धीरे ही सही)अपनी मानसिकता बनाते दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने लगभग तय कर लिया दिखता है कि किस विधायक को फिर से दोबारा वोट देना है। और किसका पत्ता साफ करना है। अभी गांवों में किसी विधायक के लिए यह सीधा सवाल पूछने पर कि ऐ दारी तुम्हर विधायक चुनाव मां जीतहि के नहीं..? इस सवाल के जवाब में अधिकांश जगह यह सुनाई दे रहा है कि “ए दारी नई महमहावत हे..!
मतलब सीधी बात है कि मतदाता भाजपा और कांग्रेस की बजाय राशियों के कर्म सत्कर्म और कुकर्मों पर ही फैसला लेने जा रहा है। और जहां तक प्रदेश में भाजपा तथा कांग्रेस दोनों की आगामी चुनावी संभावनाओं को पूछने पर कहीं-कहीं ए दारी फेर कका आही… तो कहीं-कहीं यह भी सुनाई दे रहा है ऐ दारी नई महमहावत है। रहा सवाल भारतीय जनता पार्टी का तो सभी को पिछले चुनाव में केंद्रीय मंत्री श्री अमित शाह के द्वारा किया गया 65 + का दावा याद ही होगा। अमित शाह के दावे के ठीक उलट चुनाव परिणामों में कांग्रेस ही 65+ प्लस आ गई। इसका मतलब साफ है कि किसी भी पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व और उनके दावे इस बार के चुनाव में फिर, खरे नहीं उतरेंगे।
इस चुनाव की किस्मत शहरों के गड्ढों भरी और चौड़ी चिकनी सड़कों के इर्द-गिर्द बसें लोगों के साथ गांव में बसे वो 80% से अधिक मतदाता तय करेंगे। जो अभी धान की रोपाई, थरहा की खोज, सब्जियों के बीज की तलाश और इंद्रदेव की मेहरबानी की चिंता में बिधुन है। डबल सावन और भादो माह निकलने के बाद, जैसे-जैसे धान की फसल लहलहाने लगेगी वैसे-वैसे मतदाताओ के दिलों में भी चुनावी अरमान रंग लेने लगेंगे। और आगामी विधानसभा चुनाव में, किसको वोट देना है…? यह सोचने-समझने और बतियाने में गांव की चौपालों पर बैठने वाले लोग अधिक समय देने लगेंगे।