जैन धर्म के पर्वाधिराज दशलक्षण महापर्व के पांचवें दिन पूजा के साथ निर्वाण लाड़ू चढ़ाये गए
(शशि कोन्हेर) : बिलासपुर। जैन धर्म के पर्वाधिराज दशलक्षण महापर्व के पांचवें दिन भाद्र पद शुक्ल अष्टमी के दिन भगवान पुष्पदंत जी के मोक्ष कल्याणक के पुनीत अवसर पर पूजा के साथ निर्वाण लाड़ू चढ़ाये गए। आत्म शुद्धि के इस महापर्व के अवसर पर दोपहर में प्रतिदिन क्रांतिनगर मंदिर जी में श्री चौबीसी विधान का आयोजन किया जा रहा।
जैन धर्म के पर्वाधिराज दशलक्षण महापर्व के पांचवें दिन उत्तम सत्य धर्म के अवसर पर धर्म सभा में श्री श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर से पधारे पंडित आशीष जी शास्त्री जी ने बताया कि उत्तम सत्य धर्म हमें यही सिखाता है कि आत्मा की प्रकृति जानने के लिए सत्य आवश्यक है और इसके आधार पर ही मोक्ष को प्राप्त करना मुमकिन है।
अपने मन और आत्मा को सरल और शुद्ध बना लें तो सत्य अपने आप ही आ जाएगा और यही उत्तम सत्य धर्म है। उन्होंने मुनि श्री 108 प्रमाणसागर जी के एक प्रवचन के कुछ अंश का उद्धरण लेते हुए बताया कि मनुष्य अनेक कारणों से असत्य बोला करता है, उनमें से एक तो झूठ बोलने का प्रधान कारण लोभ है। लोभ में आकर मनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये असत्य बोला करता है। असत्य भाषण करने का दूसरा कारण भय है। मनुष्य को सत्य बोलने से जब अपने ऊपर कोई आपत्ति आती हुई दिखाई देती है, अथवा अपनी कोई हानि होती दिखती है। उस समय वह डरकर झूठ बोल देता है, झूठ बोलकर वह उस विपत्ति या हानि से बचने का प्रयत्न करता है।
असत्य बोलने को तीसरा कारण मनोरंजन भी है। बहुत से मनुष्य हंसी मजाक में कोतूहल के लिये भी झूठ बोल देते हैं। दूसरे व्यक्ति को भ्रम में डालकर या हैरान करके अथवा किसी को भय उत्पन्न कराने के लिये या दूसरे को व्याकुलता पैदा करने के लिये झूठ बोल देते हैं। इसी से उनका मनोरंजन होता है।
सार बताते हुए उन्होंने कहा कि सत्य का मूल सरलता है और असत्य का मूल क्रोध लोभ आदि विकार है। सत्य ही विश्वास का आधार है और जो सत्य पर अटल, वो साधक है। उन्होंने कहा कि सत्य का शोर मचाना, सत्य के प्रति संदेह को जन्म देता है, साथ ही उन्होंने अनुरोध किया कि अप्रिय सत्य और प्रिय झूठ मत बोलो।
किसी भी कार्यक्रम की शुरुआत मंगलाचरण से की जाती है, उत्तम शौच धर्म के दिन आयोजित सांस्कृतिक एवं धार्मिक कार्यक्रम का शुभारम्भ क्रांतिनगर मंदिर पाठशाला के बच्चों अनोखी, भाविका, लाव्या, अन्वी, भव्य, सिद्ध, वेदार्थ, देव, इवान, अणिमा, श्रेयांश, कुहू, सात्विक, राव्या ने सारे जहाँ से अच्छा जिन धर्म है हमारा और अपनी अपनी करनी का फल सबको मिलता है भजनों पर आकर्षक एवं मनमोहक प्रस्तुति दी। इस कड़ी में पाठशाला के बच्चों जीविका, सर्वार्थ, आरु, रिद्धिमा, अतिक्ष, आमर्ष, अर्जुन, ख़ुशी, हर्षिल, पीहू द्वारा जैन धर्म के तीन रत्नो में से एक सम्यक दर्शन के आठ अंगों में से एक अमूढ़दृष्टि अंग में प्रसिद्ध हुई रानी रेवती की कहानी को नाटिका के रूप में प्रस्तुत किया। इसमें बताया गया कि दुनिया में कई तरह की मूढ़ताएं हैं, भ्रांत दृष्टियां हैं। एक मूढ़ता को वे कहते हैं, लोकमूढ़ता।
अनेक लोग अनेक कामों में लगे रहते हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि समाज ऐसा करता है; क्योंकि और लोग ऐसा करते हैं। उसको कहते हैं: लोकमूढ़ता। क्योंकि सभी लोग ऐसा करते हैं, इसलिए हम भी करेंगे!…सत्य का कोई हिसाब नहीं है–भीड़ का हिसाब है। तो यह तो भेड़चाल हुई। सत्य की तरफ केवल वही जा सकता है जो भेड़चाल से ऊपर उठे; जो धीरे-धीरे अपने को जगाए और देखने की चेष्टा करे कि जो मैं कर रहा हूं, वह करना भी था या सिर्फ इसलिए कर रहा हूं कि और लोग कर रहे हैं और भीड़ के साथ हम जुड़े रहते हैं–भय के कारण। अकेले होने में डर लगता है। हिम्मत होनी चाहिए साधक में, कि वह इस पंक्ति के बाहर निकल आये। अगर उसे ठीक लगे तो बराबर करे, लेकिन ठीक लगना चाहिए स्वयं की बुद्धि को। यह उधार नहीं होना चाहिए। और अगर ठीक न लगे, तो चाहे लाख कीमत चुकानी पड़े तो भी करना नहीं चाहिए, हट जाना चाहिए। जो तुम्हारी अंतःप्रज्ञा कहे, जो तुम्हारा बोध कहे, वही तुम करना; उससे अन्यथा मत करना, अन्यथा वह लोकमूढ़ता होगी। इन मूढ़ताओं के कारण व्यक्ति सत्य की तरफ नहीं जा पाता। दूसरी प्रस्तुति में सन्मति विहार पाठशाला के सदस्यों द्वारा रानी रेवती की कहानी का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया।