श्मशान घाट में, चिता की राख से, खेली जाती है वहां भस्म होली
(शशि कोनहेर) : वाराणसी में शिवरात्रि के बाद से ही होली का माहौल बन जाता है लेकिन रंगभरी एकादशी के दिन से काशी में विधिवत अबीर-गुलाल की होली शुरू हो जाती है. रंगभरी एकादशी के दिन बाबा विश्वनाथ माता पार्वती का गौना कराने जाते हैं, लिहाजा ससुराल में बारातियों के साथ पूरे गाजे-बाजे के साथ अबीर गुलाल खेलते हुए बाबा विश्वनाथ की पालकी निकलती है ।
जो वाराणसी टेड़ी नीम स्थित महंत के घर से निकलकर विश्वनाथ मंदिर पहुंचती है. इस शोभायात्रा के दौरान पूरा रास्ता अबीर-गुलाल से भर जाता है. इसके साथ ही बनारस में श्मशान घाट पर जलती हुई चिताओं के बीच चिता भस्म की होली भी बाबा भोलेनाथ और उनके गण खेलते हैं.
वाराणसी के भानु ने बताया कि वैसे तो काशी में बाबा विश्वनाथ हमेशा दर्शन देते हैं लेकिन रंगभरी एकादशी के दिन बाबा राजसी स्वरूप में दर्शन देते हैं. इसका सबसे बड़ा कारण है कि हर काशीवासी, बाबा विश्वनाथ और माता गौरा को अपने परिवार का अंग मानता है. इस कारण माता गौरा का गौने का लोकाचार परिवार के सदस्य की तरह लोग करते हैं. आज बाबा राजसी स्वरूप में रहते हैं, माता गौता महारानी के रूप में काशीवासियों को दर्शन देती हैं.
बाबा विश्वनाथ की नगरी बनारस में श्मशान घाट पर जलती हुई चिताओं के बीच चिता भस्म की होली भी बाबा भोलेनाथ और उनके गण खेलते हैं. मान्यता है कि रंगभरी एकादशी के दिन जब बाबा विश्वनाथ, माता पार्वती का गौना कराकर वापस आते हैं तो उनके घर पर तो भक्तगण होली अबीर के साथ खेलते हैं लेकिन जो भूत-प्रेत और दूसरे औघड़ हैं वह वहां नहीं जाते.
लिहाजा बाबा विश्वनाथ जब रंग छुड़ाने के लिए गंगा के पास श्मशान घाट आते हैं तो वहां पर चिता भस्म के साथ होली खेली जाती है. रंगभरी एकादशी के दिन हरिश्चंद्र घाट पर यह होली होती है और दूसरे दिन मणिकर्णिका घाट पर चिता भस्म की होली खेली जाती है जिसमें हर तरफ लोगों का हुजूम और जलती हुई चिताओं के बीच में होली की मस्ती नजर आती है. चिता भस्म की होली को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग उमड़ते हैं.