छत्तीसगढ़ के लोकजीवन में परसा रचा बसा है- डा पाठक
(शशि कोन्हेर) : बिलासपुर : बिलासा कला मंच ने मनाया परसा संरक्षण दिवस परसा के महत्व को प्रतिपादित करने के लिए छत्तीसगढ़ के ग्राम नाम परसदा,परसाही, परसाडोल,परसपाली आदि मिलते हैं जो छत्तीसगढ़ के लोकजीवन में रचे बसे के प्रमाण कहे जा सकते हैं उक्त बातें बिलासा कला मंच द्वारा आज 1 मार्च को परसा (पलाश) संरक्षण दिवस के अवसर पर आयोजित परिचर्चा की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ भाषाविद डा विनय कुमार पाठक ने व्यक्त की। उन्होंने कहाकि पलाश को छत्तीसगढ़ का प्रतीक मानते हुए इसके संरक्षण,संवर्धन के लिए आज के दिवस को पलाश दिवस मनाने के लिए संकल्प लेना हमारा गंतव्य होना चाहिए।
वक्ता के रूप में उपस्थित वरिष्ठ साहित्यकार डा अजय पाठक ने कहा कि पलाश जीवन के उल्लास का प्रतीक है जिसका भारतीय जनमानस में योगदान रहा है।इसीलिए इसे गरीबों का कल्पवृक्ष भी कहा गया है। वही वरिष्ठ साहित्यकार डा देवधर महंत ने कहा कि पलाश हिंदी,छत्तीसगढ़ी कविताओं में पलाश विद्यमान है। परिचर्चा में मुख्य अतिथि के रूप में दतिया से पधारे वरिष्ठ कवि राधाकृष्ण पाठक, बिलासा कला मंच के संरक्षक डा सोमनाथ मुखर्जी ने भी पलाश पर सारगर्भित बातें कही।
वरिष्ठ पत्रकार प्राण चड्डा ने ऑनलाइन परिचर्चा में हिस्सा लेते हुए कहां कि चंदैनी गोंदा के समान परसा का पेड़ भी उपेक्षित है। लेकिन बसन्त में इसके फूल पथिक को अपनी तरफ खींचते हैं और वह निहारता अपनी थकान मिटाता है। प्रवासी लाल मैना से लेकर देसी हीरामन तोते जैसे कई पखेरू इसका रसपान करते हैं।
लेकिन इस पेड़ की कटाई पोताई के लिए कूची से लेकर बीज का निर्यात,और चूल्हे के लिए इसकी लकड़ी का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर हो रहा है। टेसू को बचाने के लिए आज हर प्रयास स्वागतेय है।
परिचर्चा की शुरुआत बिलासा कला मंच के संस्थापक वा लोकमर्मज्ञ डा सोमनाथ यादव ने करते हुए परसा (पलाश) के बारे में बताया कि पलाश एक वृक्ष है जिसके फूल बहुत ही सुंदर होते हैं। फागुन माह में फूलने वाले टेशू का फूल दूर से ऐसा प्रतीत होता है जैसे आग लगी हो इसलिए इसे जंगल की आग भी कहा जाता है।
पलास के फूल लाल, सफेद और पीला भी होते है।
गावों में इसके पत्तों और डंगाल से विवाह कार्यक्रम में मंडपाच्छादन किया जाता है वही गर्मी से बचने के लिए भी इसके पत्तों और लकड़ियों का उपयोग किया जाता है। वही परसा पत्ता से भोजन हेतु दोना, पत्तल भी बनता है।
गांव में परसा के लकड़ी का खाना पकाने, बाड़ आदि बनाने में भी काम आता है।
यही नहीं मधुमक्खी,तितली,चींटी और बंदर इसके रस का मधुर आनंद लेते है। होली में टेशू फूल से गुलाल और रंग बनते है वही औषधि के रूप में भी काम आता है।
छत्तीसगढ़ में परसा की महत्ता है वो हमारी लोकगीतों में भी है। आज परसा तेजी से विलुप्त हो रहा है। अंधाधुन पेड़ो की कटाई और विकास की अंधी दौड़ ने हमे प्रकृति से दूर कर दी है।
छत्तीसगढ़ की शान परसा को संरक्षित किया जाने की आवश्यकता है और ये काम सरकार के साथ हम सब को करना होगा। इस अवसर पर
सनत तिवारी,डा सुधाकर बिबे,डा गंगाधर पटेल, नरेंद्र कौशिक,रामेश्वर गुप्ता,हरिश्चंद्र वादयकार,हर्ष पांडेय,दिनेश्वर राव जाधव,चतुर सिंह,बिनु सिंह,रमाकांत सोनी,शैलेश कुंभकार,शत्रुघ्न जैसवानी, मनोहर दास मानिकपुरी आदि ने परसा के महत्व को प्रतिपादित करते हुए जहा अपने विचार रखे वही कविता और गीत के माध्यम से परसा के महत्ता को बताया। परिचर्चा का संचालन अध्यक्ष महेश श्रीवास ने किया वही धन्यवाद दिया उपाध्यक्ष देवानंद दुबे ने।