बिलासपुर

पंचकल्याणक महोत्सव के भक्ति भाव से सरोबार हैं अमरकंटक पहुंचे जैन धर्मावलंबी

(उज्वल तिवारी) : बिलासपुर – अमरकंटक की पावन धरा पर जैन धर्म के पंचकल्याणक महोत्सव में श्रद्धालु भक्ति भाव से सराबोर हैं। संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के ससंघ सानिध्य में इस महोत्सव में ज्ञानकल्याणक दिवस मनाया गया। प्रातःकाल से ही हजारों इंद्र इंद्राणियों सहित प्रमुख पात्रों ने बाल ब्रम्ह्यचारी प्रतिष्ठाचार्य विनय भैया। “सम्राट”के संचालकत्व में तप कल्याणक की विशेष पूजा की।

सर्वोदय तीर्थ पंचकल्याणक महोत्सव समिति के प्रचार प्रमुख वेदचन्द जैन ने अमरकंटक से ये जानकारी देते हुये बताया कि सांसारिक माया मोह और राजपाट को त्याग कठोर तप में लीन भगवान आदिनाथ को केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई। कठोर तप के उपरांत आहार के लिये नगर में आते हैं किंतु तब किसी को नवधा भक्ति पूर्वक आहार देने की विधि ज्ञात नहीं होने के कारण निराहार जंगल को लौट गये।ये क्रम छै महीनों तक चलता रहा तब अक्षय तृतीया के दिन राजा सोम श्रेयांस के यहां विधि मिली और उनके चौके में भगवान के आहार हुये। ज्ञानकल्याणक के दिवस पाषाण से भगवान बनने की प्रक्रिया में ये प्रक्रिया पूरी की गई।

ज्ञानकल्याणक महोत्सव में उपस्थित जन समुदाय को संबोधित करते हुए निर्यापक मुनिश्री प्रसाद सागर महाराज ने कहा कि राह पथरीली हो तो चलना कठिन, बरसात हो जाये तो और कठिन, ऊपर चढ़ाई चढ़ना तो बहुत कठिन साथ में भार हो तो असंभव हो जाता है एक कदम बढ़ना।हमने कितना भार उठा रखा है अपने सिर पर और परिग्रह का भार बढ़ाते हीजा रहे हैं जितना संग्रह करो तृष्णा मिटती नहीं और बढ़ जाती है।जिंदगी पूरी हो गयी पर चाह तो अधूरी ही रह गई।

आपने इसका समाधान करते हुये बताया कि उपाय बहुत सरल है जो भार बढ़ने नहीं देता चढ़ने नहीं देता उसे कम करें और जिस दिन पूरा भार छूट जायेगा यात्रा बहुत सुगम हो जायेगी। भगवान आदिनाथ ने युग के आरंभ में अपना भार उतार दिया और मुक्ति की राह पा ली और हमें भी जीने की राह दिखाई। रूस और यूक्रेन के बीच चार सौ से अधिक दिनों से युद्ध हो रहा है।भरत और बाहुबली के बीच भी धर्मयुद्ध हुआ था।महाराज जी ने बताया जहां असंयम है वहां युद्ध है और जहां संयम है वहां शाति है।
झूठे जग के सपने सारे,
झूठी मन की सब आशायें
तन जीवन यौवन अस्थिर
क्षणभंगुर पल में मुरझायें।

आपने बताया कि साधना के लिये वनगमन आवश्यक है ये महलों में रहकर नहीं हो सकती।परिग्रह के भार का पूर्णरूपेण परित्याग के लिये निर्जन और निर्गम स्थान वन में ही मिलता है जहां साधक और प्रकृति एकाकार हो जाते हैं। वन में होकर भी भगवान आदिनाथ के भीतर जगकल्याण और परहित के भाव निहित थे।जनकल्याण के भाव के अभाव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं हो सकता।

प्रचार प्रमुख वेदचन्द जैन ने आगे जानकारी देते हुये बताया कि अपरान्ह में भगवान को केवलज्ञान होते ही कुबेर द्वारा समवशरण की रचना की गई। गंधकुटी मे रचित सिंहासन पर भगवान विराजमान हुये।इस धर्मसभा में उपस्थित समुदाय को संबोधित करते हुये मुनिश्री प्रसाद सागर महाराज ने कहा कि भगवान आदिनाथ से भगवान महावीर तक चौबीसों तीर्थंकर की दिव्यध्वनि खिरी और उनके उपदेशों की धारा अब तक प्रवाहमान है। जिनेन्द्र भगवान दर्पण समान है जिसमें सब झलकता है। ये दर्पण अनादि काल से है और अनंतकाल तक रहेगा। प्रभु जिन है और हम जन हैं।जिन और जैन का अंतर ये है कि जिनके ऊपर वैभव बैठा वो जन और जो वैभव से ऊपर बैठे वो जिन। हम जिनभक्त हैं जिन्होंने सभी इंद्रियों को जीत लिया है अष्टकर्मों का नाश कर मोक्ष पा लिया।


समवशरण में भगवान का प्रथम दर्शन आर के मारवल के अधिपति श्री अशोक पाटनी की धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला पाटनी ने किया। साभार-वेदचन्द जैन

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