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सबको सम्मान से मरने का अधिकार….इच्छामृत्यु के नियमों में सुधार को तैयार सुप्रीम कोर्ट

(शशि कोन्हेर) : पैसिव इच्छामृत्यु को लेकर अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाने के चार साल बाद सुप्रम कोर्ट ने 2018 के दिए निर्देशों में संशोधन करने को लेकर सहमति जताई है। कोर्ट ने कहा है कि जो लोग गंभीर रूप से बीमार हैं और लिविंग विल बना चुकें हैं उनको सम्मान के साथ मरने का अधिकार है। उन्हें कानूनी पेच में नहीं फंसाना चाहिए और मेडिकल एक्सपर्ट्स को भी इस मामले में संज्ञान लेना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि अगर कोई अपना इलाज बंद करवाना चाहता है तो उसे अनुमति देने का भी नियम होना चाहिए।

जस्टिस केएम जोसेफ की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा, कोर्ट ने मृत्यु के अधिकार को भी मौलिक अधिकार बताया था। अब इसे पेचीदा नहीं बनाना चाहिए। इस बेंच में जस्टिस अजय रस्तोगी, अनिरुद्ध बोस, ह्रषिकेष रॉय और जस्टिस सीटी रविकुमार शामिल थे। बेंच ने कहा कि 2018 में लिविंग विल के बारे में बनाए गए दिशानिर्देशों में सुधार की जरूरत है।

बेंच ने कहा, मौजूदा दिशानिर्देश बोझिल हैं और उन्हें सरल बनाने की जरूरत है। लेकिन हमें सावधानी भी रखनी है कि उनका गलत इस्तेमाल ना हो। बता दें कि कोर्ट उस याचिका पर सुनवाई कर रहा था जिसमें किसी शख्स के मरणासन्न होने पर इलाज बंद करने के लिए प्रक्रिया पर दिशानिर्देश दिए गए थे। 2018 के फैसले के मुताबिक कोई भी बालिग व्यक्ति अपनी लिविंग विल बना सकता है और दो अटेस्टिंग विटनेस की मौजूदगी में इसपर साइन होने चाहिए और इसके बाद संबंधित जूडिशल मजिस्ट्रेट इसकी इजाजत देता है।

नियम के मुताबिक अगर कोई मरीज मरणासन्न हो जाता है और लंबे इलाज के बाद भी सुधार की कोई गुंजाइश नहीं होती तो डॉक्टरों को एक्सपर्ट्स का बोर्ड बनाना होता है जिसमें जनरल मेडिसिन, कार्डियोलॉजी, न्यूरोलॉजी, नेप्रोलॉजी, साकियात्री और ऑन्कोलॉजी के डॉक्टर होत हैं। यह बोर्ड मरीज के परिवार के आग्रह पर बनाया जाता है। मेडिकल बोर्ड से प्रमाणन के बाद डीएम एक दूसरा बोर्ड बनाता है। दूसरे मेडिकल बोर्ड से मंजूरी के बाद डीएम इसपर फाइनल फैसला करता है। अगर अस्पताल का मेडिकल बोर्ड इलाज बंद करने की इजाजत नहीं देता है तो परिवार के लोग हाई कोर्ट जा सकते हैं। वहां भी एक मेडिकल बोर्ड बनाया जाता है जिसकी राय पर हाई कोर्ट फैसला करता है।

सीनियर वकील अरविंद दातार और प्रशांत भूषण ने याचिकाकर्ता की तरफ से कहा कि यह तीन चरणों की प्रक्रिया 2018 के पूरे फैसले को ही नगण्य कर देता है। अब तक ऐसा हो ही नहीं पाया है कि कोई पैसिव इच्छामृत्यु चाहने वाला व्यक्ति यह प्रक्रिया पूरी कर पाया हो। बेंच ने भी कहा कि नियमों में थोड़ा बदलाव की जरूरत है। लेकिन हमें बहुत सतर्क भी रहना है कि किसी के जीवन के मायने कम ना हों। डॉक्टर भगवान नहीं हैं जो कि हर बात की पुख्ता जानकारी दे सकें। वे मौसम वैज्ञानिक की तरह होते हैं जो कि विज्ञान के आधार पर बताते हैं। हम मेडिकल साइंस के जानकार नहीं हैं। इसलिए दिशानिर्देशों में सुधार करते वक्त बहुत सतर्क रहने की जरूरत है।

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