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इलाहाबाद हाई कोर्ट की अहम टिप्पणी….लिव-इन नहीं, पारंपरिक विवाह के पक्ष में है कानून

(शशि कोन्हेर) : इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे मुस्लिम युवक व हिंदू युवती को यह टिप्पणी करते हुए राहत देने से इन्कार कर दिया कि कानून पारंपरिक रूप से विवाह के पक्ष में है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णयों में भी ऐसे रिश्तों को बढ़ावा देने की कोई मंशा नहीं है। न्यायालय ने आगे यह भी टिप्पणी की कि इस्लाम भी विवाह पूर्व शारीरिक संबंधों के विरुद्ध है और ऐसे कृत्य को व्याभिचार मानते हुए, इसे ‘जिना’ कहा गया है। यह आदेश कोर्ट ने किरन रावत व मोहम्मद रिजवान की याचिका को खारिज करते हुए पारित किया।

याचियों का कहना था कि वे क्रमश: 29 और 30 साल के बालिग युवा हैं व एक-दूसरे से प्रेम करते हैं तथा लिव-इन में रह रहे हैं, लेकिन लड़की की मां के कहने पर लखनऊ के थाना हसनगंज की पुलिस उन्हें परेशान कर रही है। कहा गया कि दोनों के मजहब अलग-अलग होने के कारण लड़की के परिवार वाले उनके रिश्ते को स्वीकार नहीं कर रहे हैं।

याचिका में पुलिस को याचियों के शांतिपूर्ण जीवन में दखल न देने का आदेश देने की मांग की गई।न्यायालय ने बीती 28 अप्रैल को याचिका पर विस्तृत आदेश पारित करते हुए कहा कि याचियों ने अपनी वैवाहिक स्थिति के बारे में कोई स्पष्ट कथन नहीं किया है और न ही इस तथ्य का उल्लेख है कि वे निकट भविष्य में विवाह करने जा रहे हैं।

न्यायालय ने यह भी पाया कि याचिका में पुलिस द्वारा परेशान करने की किसी भी विशेष घटना का कोई उल्लेख नहीं है। याचिका में सर्वोच्च न्यायालय के कई आदेशों का संदर्भ दिया गया था, जिस पर न्यायालय ने टिप्पणी की कि उक्त निर्णयों को लिव-इन संबंधों को बढ़ावा देने के तौर पर नहीं देखा जा सकता।

न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की कि युवाओं में यह जागरूकता भी लानी होगी कि ऐसे रिश्ते तमाम कानूनी परेशानियों को उत्पन्न करते हैं जैसे संपत्ति में बंटवारा, हिंसा, लिव-इन पार्टनर के साथ धोखा, पार्टनर से अलगाव अथवा उसकी मृत्यु के पश्चात पुनर्वास व ऐसे संबंधों से पैदा हुए बच्चे की कस्टडी आदि। न्यायालय ने कहा कि स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने भी भरण-पोषण के मामलों में लिव-इन पार्टनर को ‘पत्नी’ की परिभाषा में शामिल करने से इन्कार किया है।

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