रायपुर

महावीर स्वामी ने कहा.. सभी जीवों से मेरा मैत्री भाव है… किसी से बैर भाव नहीं.. मेरे द्वारा किए अपराध कि मैं क्षमा मांगता हूं और उनके अपराधों को क्षमा करता हूं…. रतनलाल डांगी-I.P.S.

(शशि कोन्हेर) : महावीर जयंती पर समस्त देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं – जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी का भारतीय इतिहास में विशेष और सम्मान पूर्ण स्थान है । उन्होंने धर्म मार्ग से भटकते हुए लोगों को ज्ञानपूर्वक सही मार्ग दिखाने का प्रयास किया। उनके द्वारा स्थापित किया गया जैन धर्म संसार के प्राचीनतम धर्मों में से एक है। हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव जिस युग में बढ़ गया, उसी युग में भगवान महावीर का जन्म हुआ। उन्होंने दुनिया को सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ाया। भगवान महावीर का जन्म तकरीबन ढाई हजार साल पहले (ईसा से 599 वर्ष पूर्व), चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन बिहार के वैशाली के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में महाराज सिद्धार्थ और महारानी त्रिशला के यहां हुआ था।


30 वर्ष की आयु में इन्होंने राज महलों के सुख को त्याग दिया और सत्य की खोज में जंगलों की ओर चले गए। ज्ञान की खोज में गृह त्याग कर महावीर ने अपनी यात्रा की शुरुआत की थी। कल्पसूत्र में अशोक वृक्ष के नीचे घटित उस क्षण का वर्णन है। वहां उन्होंने अपने अलंकार, मालाएं और सुंदर वस्तुओं को त्याग दिया। आकाश में चंद्रमा और ग्रह नक्षत्रों के शुभ संयोजन की बेला में उन्होंने ढाई दिन के निर्जल उपवास के बाद दिव्य वस्त्र धारण किए । वो उस समय बिल्कुल अकेले थे। अपने केश लुंचित कर और अपना घर बार छोड़कर वो संन्यासी हो गए । घने जंगलों में रहते हुए इन्होंने बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की, जिसके पश्चात ऋजुबालुका नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। जिसके पश्चात उन्होंने समाज के सुधार और लोगों के कल्याण के लिए उपदेश दिये।
तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के मूर्तिमान प्रतीक थे। उनका जीवन त्याग और तपस्या से ओतप्रोत उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए, जो हैं- अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य। सभी जैन मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका को इन पंचशील गुणों का पालन करना अनिवार्य है। महावीर स्वामी ने अपने उपदेशों और प्रवचनों के माध्यम से दुनिया को सही राह दिखाई और मार्गदर्शन किया। यद्यपि उनकी धर्मयात्राओं का प्रभाव विशेष रूप से क्षत्रियों और व्यवसायी वर्ग पर पड़ा, जिनमें शूद्र भी बहुत बड़ी संख्या में सम्मिलित थे। महावीर अहिंसा के दृढ़ उपासक थे, इसलिए किसी भी दिशा में विरोधी को क्षति पहुंचाने की वे कल्पना भी नहीं करते थे। वे किसी के प्रति कठोर वचन भी नहीं बोलते थे और जो उनका विरोध करता, उसको भी नम्रता और मधुरता से ही समझाते थे। इससे परिचय हो जाने के बाद लोग उनकी महत्ता समझ जाते थे और उनके आंतरिक सद्भावना के प्रभाव से उनके भक्त बन जाते थे। महावीर स्वयं क्षत्रिय और राजवंश के थे, इसलिए उनका प्रभाव कितने ही क्षत्रिय नरेशों पर विशेष रूप से पड़ा।
जैन ग्रंथों के अनुसार राजगृह का राजा बिंबिसार महावीर का अनुयायी था। वहां पर इसका नाम श्रेणिक बताया गया है और महावीर स्वामी के अधिकांश उपदेश श्रेणिक के प्रश्नों के उत्तर के रूप में ही प्रकट किये गये हैं। आगे चलकर इतिहास प्रसिद्ध महाराज चंद्रगुप्त मौर्य भी जैन धर्म के अनुयायी बन गये थे ।

महावीर स्वामी के अनुसार अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है। किसी के अस्तित्व को मिटाने की अपेक्षा उसे शांति से जीने दो और स्वयं भी शांति से जियो इसी में सभी का कल्याण है। इस संसार में जितने भी जीव हैं उनके प्रति दया भावना रखों।
जिसके मन में सदैव धर्म रहता है और जो धर्म के मार्ग पर चलता है देवता भी उसे नमस्कार करते हैं। अहिंसा, तप और संयम ही धर्म है। क्षमा के बारे में महावीर स्वामी ने कहा कि सभी जीवों से मेरा मैत्री भाव है मुझे किसी से कोई बैर भाव नहीं है मेरे द्वारा किए गए अपराध की मैं क्षमा मांगता हूं और उनके द्वारा किए गए अपराधों को क्षमा करता हूं। इस तरह से उन्होंने क्षमा मांगना और क्षमा करना दोनों ही गुणों के बारे में बताया है।


महावीर स्वामी के अनुसार सत्य ही सच्चा तत्व है जो सत्य को जान लेता है वह मृत्यु को भी तैरकर पार कर जाता है। अपरिग्रह अर्थात कोई भी वस्तु संचित न करना। किसी के प्रति लोभ मोह न रखना। जो व्यक्ति सजीव या निर्जीव वस्तुओं का संग्रह करता है या उसे करने की सम्मति देता है। उसे दुखों से छुटकारा प्राप्त नहीं होता है।


महावीर की शिक्षाएँ आत्मा की आंतरिक सुंदरता, शक्ति और सामंजस्य को दर्शाती हैं। उन्होंने मानव जीवन की सर्वोच्चता का ज्ञान सिखाया और जीवन के सकारात्मक दृष्टिकोण के महत्व पर बल दिया। महावीर ने कहा, “एक जीवित शरीर केवल अंगों और मांस का एकीकरण नहीं है, बल्कि यह आत्मा का निवास है, जिसमें अनंत-ज्ञान, अनंत-दर्शन, अनंत-वीर्य और अनंत सुख निहित है।”


दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करें जैसा आप अपने साथ चाहते हैं। जिस प्रकार आप दुःख पसंद नहीं करते उसी तरह और लोग भी इसे पसंद नहीं करते। यह जानकर, आपको उनके साथ वो नहीं करना चाहिए जो आप उन्हें अपने साथ नहीं करने देना चाहते। जियो और दूसरों को जीने दो। सभी प्राणियों को जीवन प्रिय है। तूं जिसे मारना चाहता है, (जिसको कष्ट व पीड़ा पहुँचना चाहता है) वह अन्य कोई तेरे समान ही चेतना वाला प्राणी है, ऐसा समझ। वास्तव में वह तूं ही है।

ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए जो हित, मित और ग्राह्य हो अर्थात जो सुखद हो और दूसरों के लिए हानिकारक न हो। यदि सत्य बोलने से किसी को चोट पहुँचने अथवा किसी की मृत्यु होने की संभावना हो तो चुप रहना बेहतर है। सभी प्रकार के व्यवहार में ईमानदार रहें। किसी को धोखा न दें। दूसरों की संपत्ति को हड़पने अथवा हासिल करने के लिए अनैतिक साधनों का प्रयोग न करें।


अपने जीवनसाथी के अलावा किसी अन्य के साथ शारीरिक संबंध न बनाएं। जीवनसाथी के साथ संबंधों में संयम बरतें। अपनी आवश्यकता से अधिक धन संचय न करें। आपका आवश्यकता से अधिक संग्रहित धन समाज के लिए है। इसे समाज के कल्याण के लिए अर्पित करें। यदि सोने और चाँदी के कैलाश पर्वत के समान असंख्य पर्वत भी मिल जाएँ तो भी लोभी मनुष्य को उससे संतोष नहीं होगा, क्योंकि इच्छाएँ आकाश के समान अनंत हैं। अतः अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करें। सांसारिक सम्पदा के मोह से बचें।


तुम बाहर में मित्रों को क्यों ढूँढते हो? तुम स्वयं ही अपने मित्र हो, और तुम स्वयं ही अपने शत्रु हो। सदाचार में प्रवृत आत्मा मित्र है और दुराचार में प्रवृत होने पर वही शत्रु है। आपकी आत्मा से परे कोई भी शत्रु नहीं है। असली शत्रु आपके भीतर रहते हैं, वो शत्रु हैं क्रोध, घमंड, लालच, आसक्ति और नफरत। बाहरी दुश्मनों से लड़ने की अपेक्षा इन दुश्मनों से लड़ें। स्वयं पर विजय प्राप्त करना लाखों शत्रुओं पर विजय पाने से बेहतर है।


सभी स्थितियों में समभाव रखें। सुख और दुख में, आनंद और कष्ट में एक समान रहें। प्रिय हो या अप्रिय, सब को समभाव से सहना चाहिए। याद रखें कि कर्मों से कोई पलायन नहीं है। कर्म अनंत जन्मों तक कर्त्ता का पीछा करते हैं। हमारी मन, वचन और काया की सभी क्रियाएँ ऐसी हों कि नए कर्मों को आकर्षित जैन धर्म में भगवान अरिहन्त (केवली) और सिद्ध (मुक्त आत्माएँ) को कहा जाता है। जैन धर्म इस ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति, निर्माण या रखरखाव के लिए जिम्मेदार किसी निर्माता ईश्वर या शक्ति की धारणा को खारिज करता है । यह जगत अनादि-अनंत है । कोई ईश्वर या परमात्मा नहीं है जो इस जगत को चलाता हो । यह जगत स्वयं संचालित है । उसी प्रकार जैन दर्शन कर्म को प्रकृति के मौलिक कण के रूप में मानता हैं । जिन्होंने कर्म क्षय कर केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उन्हें अरिहंत कहते है। तीर्थंकर विशेष अरिहन्त होते है जो ‘तीर्थ’ की रचना करते है, यानी की जो अन्य जीवों को मोक्ष-मार्ग दिखाते है।
जैन दर्शन में व्यक्ति पूजा का कोई स्थान नहीं है । जैन धर्म के अनुसार मनुष्य साधारण रूप में जन्म लेता है, परंतु अपनी इंद्रिय संयम और आत्म विजय की साधना के बल पर हर व्यक्ति महान बन सकता है।
रतन लाल डांगी, आई पी एस
छत्तीसगढ़

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